मंगलवार, 19 नवंबर 2019

सुभद्रा कुमारी चौहान की अमर कविता - झाँसी वाली रानी की अमर गाथा


खूब लड़ी मर्दानी, वह तो झाँसी वाली रानी थी
झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई के बलिदान पर लिखी सुभद्राकुमारी चौहान की वह अमर कविता, जिसे शायद आपने अबतक पूरा नहीं पढा होगा, 

आज महारानी लक्ष्मी बाई की जयंती पर पढिए पूरी कविता

लक्ष्मीबाई का जन्म वाराणसी (उ.प्र.) में 19 नवम्बर 1828 को हुआ था। उनका बचपन का नाम मणिकर्णिका था लेकिन प्यार से उन्हें मनु कहा जाता था। उनकी माँ का नाम भागीरथीबाई और पिता का नाम मोरोपंत तांबे था। मोरोपंत एक मराठी थे और मराठा बाजीराव की सेवा में थे। माता भागीरथीबाई एक सुसंस्कृत, बुद्धिमान और धर्मनिष्ठ प्रवृत्ति की थी, उनकी माँ की मृत्यु हो गयी। क्योंकि घर में मनु की देखभाल के लिये कोई नहीं था इसलिए पिता मोरोपंत मनु को अपने साथ पेशवा बाजीराव द्वितीय के दरबार में ले जाने लगे। जहाँ चंचल और सुन्दर मनु ने सब लोग उसे प्यार से "छबीली" कहकर बुलाने लगे। मनु ने बचपन में शास्त्रों की शिक्षा के साथ शस्त्र की शिक्षा भी ली। सन् 1842 में उनका विवाह झाँसी के मराठा शासित राजा गंगाधर राव नेवालकर के साथ हुआ और वे झाँसी की रानी बनीं। विवाह के बाद उनका नाम लक्ष्मीबाई रखा गया। सन् 1851 में रानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया। परन्तु चार महीने की उम्र में ही उसकी मृत्यु हो गयी। सन् 1853 में राजा गंगाधर राव का स्वास्थ्य बहुत अधिक बिगड़ जाने पर उन्हें दत्तक पुत्र लेने की सलाह दी गयी। पुत्र गोद लेने के बा 21 नवम्बर 1853 को राजा गंगाधर राव की मृत्यु हो गयी। दत्तक पुत्र का नाम दामोदर राव रखा गया।

ब्रितानी (ब्रिटिश) राज ने अपनी राज्य हड़प नीति के तहत बालक दामोदर राव के ख़िलाफ़ अदालत में मुक़दमा दायर कर दिया। हालांकि मुक़दमे में बहुत बहस हुई, परन्तु इसे ख़ारिज कर दिया गया। ब्रितानी अधिकारियों ने राज्य का ख़ज़ाना ज़ब्त कर लिया और उनके पति के कर्ज़ को रानी के सालाना ख़र्च में से काटने का फ़रमान जारी कर दिया। इसके परिणामस्वरूप रानी को झाँसी का क़िला छोड़ कर झाँसी के रानीमहल में जाना पड़ा। पर रानी लक्ष्मीबाई ने हिम्मत नहीं हारी और उन्होनें हर हाल में झाँसी राज्य की रक्षा करने का निश्चय किया।

इसके बाद जो हुआ उसे बयां कर पाना संभव नहीं, बस महसूस करिए इस कविता के माध्यम से


सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी
,
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी
,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।
चमक उठी सन सत्तावन में
वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी
,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।



कानपूर के नाना कीमुँहबोली बहन छबीली थी,
लक्ष्मीबाई नामपिता की वह संतान अकेली थी,
नाना के सँग पढ़ती थी वहनाना के सँग खेली थी,
बरछी ढालकृपाणकटारी उसकी यही सहेली थी।
वीर शिवाजी की गाथायें उसकी याद ज़बानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार,
देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार,
नकली युद्ध-व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार,
सैन्य घेरनादुर्ग तोड़ना ये थे उसके प्रिय खिलवार।
महाराष्टर-कुल-देवी उसकी भी आराध्य भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में,
ब्याह हुआ रानी बन आई लक्ष्मीबाई झाँसी में,
राजमहल में बजी बधाई खुशियाँ छाई झाँसी में,
चित्रा ने अर्जुन को पायाशिव से मिली भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

उदित हुआ सौभाग्यमुदित महलों में उजियाली छाई,
किंतु कालगति चुपके-चुपके काली घटा घेर लाई,
तीर चलाने वाले कर में उसे चूड़ियाँ कब भाई,
रानी विधवा हुईहाय! विधि को भी नहीं दया आई।
निसंतान मरे राजाजी रानी शोक-समानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

बुझा दीप झाँसी का तब डलहौज़ी मन में हरषाया,
राज्य हड़प करने का उसने यह अच्छा अवसर पाया,
फ़ौरन फौजें भेज दुर्ग पर अपना झंडा फहराया,
लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज्य झाँसी आया।
अश्रुपूर्णा रानी ने देखा झाँसी हुई बिरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

अनुनय विनय नहीं सुनती हैविकट शासकों की माया,
व्यापारी बन दया चाहता था जब यह भारत आया,
डलहौज़ी ने पैर पसारेअब तो पलट गई काया,
राजाओं नव्वाबों को भी उसने पैरों ठुकराया।
रानी दासी बनीबनी यह दासी अब महरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

छिनी राजधानी दिल्ली कीलखनऊ छीना बातों-बात,
कैद पेशवा था बिठुर मेंहुआ नागपुर का भी घात,
उदैपुरतंजौरसताराकरनाटक की कौन बिसात?
जबकि सिंधपंजाब ब्रह्म पर अभी हुआ था वज्र-निपात।
बंगालेमद्रास आदि की भी तो वही कहानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

रानी रोयीं रिनवासों मेंबेगम ग़म से थीं बेज़ार,
उनके गहने कपड़े बिकते थे कलकत्ते के बाज़ार,
सरे आम नीलाम छापते थे अंग्रेज़ों के अखबार,
'नागपूर के ज़ेवर ले लो लखनऊ के लो नौलख हार'
यों परदे की इज़्ज़त परदेशी के हाथ बिकानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

कुटियों में भी विषम वेदनामहलों में आहत अपमान,
वीर सैनिकों के मन में था अपने पुरखों का अभिमान,
नाना धुंधूपंत पेशवा जुटा रहा था सब सामान,
बहिन छबीली ने रण-चण्डी का कर दिया प्रकट आहवान।
हुआ यज्ञ प्रारम्भ उन्हें तो सोई ज्योति जगानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

महलों ने दी आगझोंपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी,
यह स्वतंत्रता की चिनगारी अंतरतम से आई थी,
झाँसी चेतीदिल्ली चेतीलखनऊ लपटें छाई थी,
मेरठकानपूरपटना ने भारी धूम मचाई थी,
जबलपूरकोल्हापूर में भी कुछ हलचल उकसानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

इस स्वतंत्रता महायज्ञ में कई वीरवर आए काम,
नाना धुंधूपंतताँतियाचतुर अज़ीमुल्ला सरनाम,
अहमदशाह मौलवीठाकुर कुँवरसिंह सैनिक अभिराम,
भारत के इतिहास गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम।
लेकिन आज जुर्म कहलाती उनकी जो कुरबानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

इनकी गाथा छोड़चले हम झाँसी के मैदानों में,
जहाँ खड़ी है लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दानों में,
लेफ्टिनेंट वाकर आ पहुँचाआगे बड़ा जवानों में,
रानी ने तलवार खींच लीहुया द्वन्द्ध असमानों में।
ज़ख्मी होकर वाकर भागाउसे अजब हैरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

रानी बढ़ी कालपी आईकर सौ मील निरंतर पार,
घोड़ा थक कर गिरा भूमि पर गया स्वर्ग तत्काल सिधार,
यमुना तट पर अंग्रेज़ों ने फिर खाई रानी से हार,
विजयी रानी आगे चल दीकिया ग्वालियर पर अधिकार।
अंग्रेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी रजधानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

विजय मिलीपर अंग्रेज़ों की फिर सेना घिर आई थी,
अबके जनरल स्मिथ सम्मुख थाउसने मुहँ की खाई थी,
काना और मंदरा सखियाँ रानी के संग आई थी,
युद्ध श्रेत्र में उन दोनों ने भारी मार मचाई थी।
पर पीछे ह्यूरोज़ आ गयाहाय! घिरी अब रानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

तो भी रानी मार काट कर चलती बनी सैन्य के पार,
किन्तु सामने नाला आयाथा वह संकट विषम अपार,
घोड़ा अड़ानया घोड़ा थाइतने में आ गये अवार,
रानी एकशत्रु बहुतेरेहोने लगे वार-पर-वार।
घायल होकर गिरी सिंहनी उसे वीर गति पानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

रानी गई सिधार चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी,
मिला तेज से तेजतेज की वह सच्ची अधिकारी थी,
अभी उम्र कुल तेइस की थीमनुज नहीं अवतारी थी,
हमको जीवित करने आयी बन स्वतंत्रता-नारी थी,
दिखा गई पथसिखा गई हमको जो सीख सिखानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी,
यह तेरा बलिदान जगावेगा स्वतंत्रता अविनासी,
होवे चुप इतिहासलगे सच्चाई को चाहे फाँसी,
हो मदमाती विजयमिटा दे गोलों से चाहे झाँसी।
तेरा स्मारक तू ही होगीतू खुद अमिट निशानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

- सुभद्रा कुमारी चौहान
(साभार - अनुभूति वेब पत्रिका)

सोमवार, 18 नवंबर 2019

गौरवशाली नरवर - अथ श्री नल-दमयन्ती कथा


निषध नरेश राजा नल और दमयन्ती की स्वयंवर कथा

फोटो स्टोरी यहाँ पढिए - नल-दमयंती कथा



एक दिन राजा नल ने अपने महल के उद्यान में कुछ हंसों को देखा। उन्होंने एक हंस को पकड़ लिया। हंस ने कहा—‘आप मुझे छोड़ दीजिये तो हम लोग दमयन्ती के पास जाकर आपके गुणों का ऐसा वर्णन करेंगे कि वह आपको अवश्य वर लेगी।नल ने हंसको छोड़ दिया। वे सब उड़कर विदर्भ देश में गये। दमयन्ती अपने हंसों को देखकर बहुत प्रसन्न हुई और हंसों को पकड़ने के लिये उनकी ओर दौड़ने लगी। दमयन्ती जिस हंस को पकड़ने के लिये दौड़ती, वही बोल उठता कि अरी दमयन्ती ! निषाद देश में एक नल नाम का राजा है। वह अश्विनीकुमार के समान सुन्दर है। मनुष्यों में उसके समान सुन्दर और कोई नहीं है। वह मानो मूर्तिमान् कामदेव है। यदि तुम उसकी पत्नी हो जाओ तो तुम्हारा जन्म और रूप दोनों सफल हो जायँ। हम लोगों ने देवता, गंधर्व, मनुष्य, सर्प और राक्षसों को घूम-घूमकर देखा है नल के समान कहीं सुन्दर पुरुष देखने में नहीं आया। जैसे तुम स्त्रियों में रत्न हो, वैसे ही नल पुरुषों में भूषण है। तुम दोनों की जोड़ी बहुत ही सुन्दर होगी।दमयन्ती ने कहा—‘हंस ! तुम नल से भी ऐसी बात कहना।हंस ने निषाद देश में लौटकर नल से दमयन्ती का संदेश कह दिया।

दमयन्ती हंस के मुँह से राजा नल की कीर्ति सुनकर उनसे प्रेम करने लगी। उसकी आसक्ति इतनी बढ़ गयी कि वह रात-दिन उनका ही ध्यान करती रहती। शरीर धूमिल और दुबला हो गया। वह दीन-सी दीखने लगी। सखियों ने दमयन्ती के हृदय का भाव ताड़कर विदर्भराज से निवेदन किया कि आपकी पुत्री अस्वस्थ हो गयी है।राजा भीम ने अपनी पुत्री के सम्बन्ध में बड़ा विचार किया। अन्त में वह इस निर्णय पर पहुँचे कि मेरी पुत्री विवाहयोग्य हो गयी है, इसलिये इसका स्वयंवर कर देना चाहिये। उन्होंने सब राजाओं को स्वयंवर का निमन्त्रण-पत्र भेज दिया और सूचित कर दिया कि राजाओं को दमयन्ती के स्वयंवर में पधारकर लाभ उठाना चाहिये और मेरा मनोरथ पूर्ण करना चाहिये। देश-देश के नरपति हाथी, घोड़े और रथों की ध्वनि से पृथ्वी को मुखरित करते हुए सज-धजकर विदर्भ देश में पहुँचने लगे। भीम ने सबके स्वागत सत्कार की समुचित व्यवस्था की।

देवर्षि नारद और पर्वत के द्वारा देवताओं को भी दमयन्ती के स्वयंवर का समाचार मिल गया। इन्द्र आदि सभी लोकपाल भी अपनी मण्डली और वाहनों सहित विदर्भ देश के लिये रवाना हुए। राजा नल का चित्त पहले से ही दमयन्ती पर आसक्त हो चुका था। उन्होंने भी दमयन्ती के स्वयंवर में सम्मिलित होने के लिये विदर्भ देश की यात्रा की। देवताओं ने स्वर्ग से उतरते समय देख लिया कि कामदेव के समान सुन्दर नल दमयन्ती के स्वयंवर के लिये जा रहे हैं। नल की सूर्य के समान कान्ति और लोकोत्तर रूप-सम्पत्ति से देवता भी चकित हो गये। उन्होंने पहिचान लिया कि ये नल हैं। उन्होंने अपने विमानों को आकाश में खड़ा कर दिया और नीचे उतरकर नल से कहा—‘राजेन्द्र नल ! आप बड़े सत्यव्रती हैं। आप हम लोगों की सहायता करने के लिए दूत बन जाइये।नल ने प्रतिज्ञा कर ली और कहा कि करूँगा। फिर पूछा कि आप लोग कौन हैं और मुझे दूत बनाकर कौन-सा काम लेना चाहते हैं ?’ इन्द्र ने कहा—‘हमलोग देवता हैं। मैं इन्द्र हूँ और ये अग्नि, वरुण और यम हैं। हम लोग दमयन्ती के लिये यहाँ आये हैं।
देवताओं ने नल से कहा कि आप हमारे दूत बनकर दमयन्ती के पास जाइये और कहिए कि इन्द्र, वरुण, अग्नि और यमदेवता तुम्हारे पास आकर तुमसे विवाह करना चाहते हैं। इनमें से तुम चाहे जिस देवता को पति के रूप में स्वीकार कर लो।नल ने दोनों हाथ जोड़कर कहा कि देवराज’ ! वहाँ आप लोगों के और मेरे जाने का एक ही प्रयोजन है। इसलिये आप मुझे दूत बनाकर वहाँ भेजें, यह उचित नहीं है। जिसकी किसी स्त्री को पत्नी के रूप में पाने की इच्छा हो चुकी हो, वह भला, उसको कैसे छोड़ सकता है और उसके पास जाकर ऐसी बात कह ही कैसे सकता है ? आप लोग कृपया इस विषय में मुझे क्षमा कीजिये

दमयन्ती का स्वयंवर और विवाह

दमयन्ती का स्वयंवर हुआ जिसमें न केवल धरती के राजा, बल्कि देवता भी नल का रूप धरकर आ गए। स्वयंवर में एक साथ कई नल खड़े थे। सभी परेशान थे कि असली नल कौन होगा। लेकिन दमयन्ती जरा भी विचलित नहीं हुई। उसने आंखों से ही असली नल को पहचान लिया। सारे देवताओं ने भी उनका अभिवादन किया। इस तरह आंखों में झलकते भावों से ही दमयंती ने असली नल को पहचानकर अपना जीवनसाथी चुन लिया। नव-दम्पत्ति को देवताओं का आशीर्वाद प्राप्त हु्आ। दमयन्ती निषाद-नरेश राजा नल की महारानी बनी। दोनों बड़े सुख से समय बिताने लगे।
दमयन्ती पतिव्रताओं में शिरोमणि थी। अभिमान तो उसे कभी छू भी न सकता था। समयानुसार दमयन्ती के गर्भ से एक पुत्र और एक कन्या का जन्म हुआ। दोनों बच्चे माता-पिता के अनुरूप ही सुन्दर रूप और गुणसे सम्पन्न थे। समय सदा एक-सा नहीं रहता, दुःख-सुख का चक्र निरन्तर चलता ही रहता है। वैसे तो महाराज नल गुणवान्, धर्मात्मा तथा पुण्यश्लोक थे, किन्तु उनमें एक दोष था जुए का व्यसन। नल के एक भाई का नाम पुष्कर था। वह नल से अलग रहता था। उसने उन्हें जुए के लिए आमन्त्रित किया। खेल आरम्भ हुआ। भाग्य प्रतिकूल था। नल हारने लगे, सोना, चाँदी, रथ, राजपाट सब हाथ से निकल गया। महारानी दमयन्ती ने प्रतिकूल समय जानकर अपने दोनों बच्चों को विदर्भ देश की राजधानी कुण्डिनपुर भेज दिया।

इधर नल जुए में अपना सर्वस्व हार गये। उन्होंने अपने शरीर के सारे वस्त्राभूषण उतार दिये। केवल एक वस्त्र पहनकर नगर से बाहर निकले। दमयन्ती ने भी मात्र एक साड़ी में पति का अनुसरण किया। एक दिन राजा नल ने सोने के पंख वाले कुछ पक्षी देखे। राजा नल ने सोचा, यदि इन्हें पकड़ लिया जाय तो इनको बेचकर निर्वाह करने के लिए कुछ धन कमाया जा सकता है। ऐसा विचारकर उन्होंने अपने पहनने का वस्त्र खोलकर पक्षियों पर फेंका। पक्षी वह वस्त्र लेकर उड़ गये। अब राजा नल के पास तन ढकने के लिए भी कोई वस्त्र न रह गया। नल अपनी अपेक्षा दमयन्ती के दुःख से अधिक व्याकुल थे। एक दिन दोनों जंगल में एक वृक्ष के नीचे एक ही वस्त्र से तन छिपाये पड़े थे। दमयन्ती को थकावट के कारण नींद आ गयी। राजा नल ने सोचा, दमयन्ती को मेरे कारण बड़ा दुःख सहन करना पड़ रहा है। यदि मैं इसे इसी अवस्था में यहीं छोड़कर चल दूँ तो यह किसी तरह अपने पिताके पास पहुँच जायगी।

यह विचारकर उन्होंने तलवार से उसकी आधी साड़ी को काट लिया और उसी से अपना तन ढककर तथा दमयन्ती को उसी अवस्था में छोड़ कर वे चल दिये। जब दमयन्ती की नींद टूटी तो बेचारी अपने को अकेला पाकर करुण विलाप करने लगी। भूख और प्यास से व्याकुल होकर वह अचानक अजगर के पास चली गयी और अजगर उसे निगलने लगा। दमयन्ती की चीख सुनकर एक व्याध ने उसे अजगर का ग्रास होने से बचाया। किंतु व्याध स्वभाव से दुष्ट था। उसने दमयन्ती के सौन्दर्य पर मुग्ध होकर उसे अपनी काम-पिपासा का शिकार बनाना चाहा। दमयन्ती उसे शाप देते हुए बोली—‘यदि मैंने अपने पति राजा नल को छोड़कर किसी अन्य पुरुष का कभी चिन्तन न किया हो तो इस पापी व्याध के जीवन का अभी अन्त हो जाय। दमयन्ती की बात पूरी होते ही व्याध मृत्यु को प्राप्त हुआ।
दैवयोग से भटकते हुए दमयन्ती एक दिन चेदिनरेश सुबाहु के पास और उसके बाद अपने पिता के पास पहुँच गयी। अंततः दमयन्ती के सतीत्व के प्रभाव से एक दिन महाराज नल के दुःखो का भी अन्त हुआ। दोनों का पुनर्मिलन हुआ और राजा नल को उनका राज्य भी वापस मिल गया।

साभार - विकिपीडिया

यहाँ देखिए, नरवर कैसे पहुँचें - How To Reach Narwar


शुक्रवार, 15 नवंबर 2019

महत्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्य - नरवर


महत्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्य : नरवर

नरवर परवर्ती काल में मालवा के सुल्तानों के कब्जे में रहा और 18वीं शताब्दी में मराठों के आधिपत्य में चला गया।

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महत्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्य - नरवर

महत्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्य : नरवर

12वीं शताब्दी के बाद नरवर पर क्रमश: कछवाहा, परिहार और तोमर राजपूतों का अधिकार रहा, जिसके बाद 16वीं शताब्दी में मुग़लों ने इस पर क़ब्ज़ा कर लिया।

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Historical Facts About Ancient Town Narwar


महत्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्य : नरवर

महाभारत में वर्णित यह नगर राजा नल की राजधानी बताया गया है। 12वीं शताब्दी तक इस नगर को 'नलपुर' कहा जाता था।


गुरुवार, 14 नवंबर 2019

मारू थारे देस में, उपजै तीन रतन, इक ढोला, इक मारवण, तीजो कसूमळ रंग

और मारू नरवर की हो गयीं।




पूनम की चांदनी रात और रिमझिम बारिश के बीच किसी दरख़्त के नीचे से एक विरही पुकार हो, तो जानिए ढोला के लिए मारू का संदेश आ पहुंचा :
"सोरठियो दूहो भलो / भलि मरवण री बात / जोवण छाई धण भली / तारां छाई रात!"


ये कहानी यहाँ से आरंभ नहीं होती, बल्कि ये तो इसका इंटरमिशन है!


ढोला-मारू : यों तो ये नाम राजस्थान में देशी मदिरा का एक ब्रांड है। ये दुःखद है कि अक्सर ही, राजस्थानी युवान व दूसरे राज्यों के लोग भी इस शब्द को मदिरा से ही जोड़ के देखते हैं।
वस्तुतः ढोला-मारू है क्या? -- ये सम्भवतः बहुत कम लोगों को मालूम है!
राजस्थान की धरती शूरवीरों की धरती है, साहस शौर्य वीरता पराक्रम त्याग तपस्या बलिदान भक्ति और शक्ति की धरती है, प्रेम की धरती है।


जैसे राजस्थान के कण-कण में वीरता साहस शौर्य और पराक्रम की अनगिनत दास्तानें लिखी हुई हैं, वैसे ही यहां कण-कण में प्रेम की भी अनगिनत अमिट दास्तानें लिखी गयी हैं!
ढोला-मारू की प्रेम कहानी को, सर्वप्रथम ग्याहरवीं शताब्दी में लिखा गया। एक महाकाव्य जोकि दोहा शैली के छंद में आद्यन्त निबद्ध था। और महाकवि थे, महाकवि कलोल।
और तकरीबन छः सदी की सुषुप्ति के पश्चात्, सत्रहवीं शताब्दी में, कवि कुशलराय वाचक ने इस प्रेम कहानी में कुछ और दोहों को जोड़ा।


तत्कालीन पश्चिम राजस्थान के थार-मरुस्थल में जांगल-प्रदेश हुआ करता था, यानी कि वर्तमान बीकानेर रियासत। इस रियासत में एक ठिकाना है, पूंगलगढ़। उसके निकट का ठिकाना है, नरवर।
ग्याहरवीं शताब्दी के पूंगलगढ़ व नरवर ठिकानों में घनिष्ठ मित्रता थी। पूंगलगढ़ में पंवार वंशीय राजा पिंगळ का शासन था और नरवर में राजा नल का!
उसी दौर की बात है, पूंगलगढ़ में भीषण अकाल पड़ गया। और राजा पिंगळ, कुछ समय के लिए अपनी पत्नी व डेढ़ वर्षीय पुत्री के साथ, अपने मित्र राजा नल के यहां रहने नरवर जा पहुंचे।
राजा नल का एक तीन वर्षीय पुत्र था, राजकुमार साल्हकुमार, जो आगे चलकर महाकाव्य का नायक ढोला बना! और नायिका बनी राजा पिंगळ की डेढ़ वर्षीय पुत्री, राजकुमारी मारवणी।
कुछ कालखंड बीतने पर, पूंगलगढ़ में अकाल समाप्त हो गया। राजा पिंगळ अपनी ठिकाने लौट आये। दोनों ठिकानों में मित्रता और ज्यादा प्रगाढ़ हो इसलिए दोनों राजाओं ने अपनी संतानों का आपस मे विवाह रचा दिया।
किन्तु गौना शेष रहा!


समय अपनी रफ्तार से बीत रहा था। राजकुमार ढोला व राजकुमारी मारू, अपने अपने महलों में बड़े हो रहे रहे थे। और देखते ही देखते, दोनों युवान हो गए।
नरवर के राजा नल ने राजकुमार साल्हकुमार का विवाह, दूसरे किसी ठिकाने की राजुकमारी मालवणी से कर दिया। उन्होंने जाना कि मारू से ढोला का विवाह तो महज गुड्डे-गुड़िया का खेल था!
राजकुमार ढोला को भी बालपन में हुआ विवाह विस्मृत हो गया था। सो, वे अपनी ब्याहता पत्नी मालवणी के साथ प्रसन्नतापूर्वक रहने लगे।


उधर मारू को अपनी ही स्मृतियों का स्वप्न आया, अपने बचपन की शादी और पति ढोला! मारू बेचैन हो उठीं, विरह-वेदना में उदास गुमसुम रहने लगीं।
पुत्री का हाल देख, राजा पिंगळ ने राजा नल को गौने का संदेश भिजवाया। यहाँ नियति से त्रुटि ये हुई की गौने की चिट्ठी ढोला की ब्याहता पत्नी मालवणी के हाथों आई और उसने पूंगलगढ़ के संदेश-वाहक की ही हत्या करवा दी!
और साथ ही, ये व्यवस्था भी कर दी कि पूंगलगढ़ से नरवर की ओर आने वाले हर राज-सन्देशवाहक की हत्या मार्ग में ही कर दी जावै!


तमाम प्रयासों में असफल होने के पश्चात्, पूंगलगढ़ के राजा पिंगळ अपने सबसे चतुर राज-सन्देशवाहक को गौने का प्रस्ताव ले कर नरवर जाने हेतु चुना।
सन्देशवाहक के रवाना होने से पहले मारू उसे अपनी सुंदरता के विषयक कुछ दोहे लिख के देती है ताकि उन दोहों के माध्यम से ढोला को मारू की सुधियाँ आ सकें।
सन्देशवाहक ने एक भिक्षुक का वेश बनाकर नरवर में शरण ली!
चांदनी रात थी। ढोला अपनी पत्नी मालवणी के साथ अपने महल में विश्राम कर रहे थे। महल के बाहर, रिमझिम बारिश में एक पेड़ के नीचे बैठ के सन्देशवाहक ने मारू द्वारा रचित दोहों को गाना शुरू किया।


दोहों के भाव कुछ यों थे :
"मारू के चेहरे की चमक सूरज की धूप जैसी सुनहली है, कुछ ऐसी कि झीनी ओढ़नी में मारू की काया कंचन-सी चमकती है। मोरनी-सी चाल, मोती-से उज्ज्वल दांत, गुलाब-से ओष्ठ और हृदय की कोमलता, विनाम्रता और क्षमाशीलता! गंगा के पानी-सी गोरी का तन और मन श्रेष्ठ है। किन्तु ऐसी विलक्षण मारू का ढोला तो उसे जैसे भूल ही गया है!"


-- ज्यों ही ये शब्द कानों में पड़े, ढोला हड़बड़ा कर नींद से जाग बैठे, बेचैन हो गए। पूंगलगढ़ और मारू जैसे शब्द सुनकर, ढोला को अपने बचपन के विवाह की याद आ गई!
अब ढोला बार-बार नरवर से पूंगलगढ़ जाकर अपनी पत्नी मारू को लाने की योजना बनाने लगे और उनकी पत्नी मालवणी उन योजनाओं को बार-बार नष्ट करने लगी।
किन्तु जब जब जो जो होता है, तब तब वो वो होता है। उसे कोई नहीं रोक सकता!
अंततोगत्वा, एक मध्यरात्रि को ढोला ने अपने महल के सबसे तेज दौड़ने वाले ऊंट पर सवार हो, पूंगलगढ़ रावानगी डाल दी।


ढोला को आया देख, मारू उसके सीने से छुईमुई के पादप की भांति लिपट गईं, ज्यों पेड़ से लता लिपट जाती है!
किन्तु ये दुःखों का अंत न था। ज्यों ही ढोला ने मारू को लेकर वापसी नरवर की ओर रवानगी डाली, थार का लुटेरा उमर सूमरा मार्ग में आ बैठा। और ढोला के चलते कारवां को रुकवा लिया।
चूंकि उमर सूमरा की योजना धन लूटने की न थी बल्कि उसे मारू चाहिए थी। सो, उसने आक्रमण न कर स्वागत किया। ढोला को लगा कि नरवर का ही कोई सामंत है, थके हारे कारवां को देख सत्कार कर रहा है।
ऐसा विचार कर, ढोला अपने ऊँट से उतर उमर सूमरा के साथ उसके तंबू में जाने लगे। ठीक उसी समय, मारू को अनहोनी का भान हुआ और उसने ढोला को पुकार लगाई कि यहां खतरा है, यहाँ से निकलो।


किन्तु स्वागत में बजते नगाड़ों के कारण मारू की आवाज़ ढोला न सुन सके!
खतरे को निकट पा कर मारू ने अपना रणकौशल दिखाया। उन्होंने अपने ऊंट को एड लगाई और ढोला के पास से गुजरते हुए बांह पकड़ के ढोला को ऊंट पर खींच लिया।
अब पीछे उमर सूमरा अपने घोड़े पर और ढोला-मारू आगे आगे! मगर रेगिस्तान का जहाज तो ऊंट है। उमर सूमरा रेत से पराजित होकर लौट गया!
और मारू नरवर की हो गईं।


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हज़ार वर्षों के पश्चात् आज भी, रेगिस्तान की इस प्रेमकथा को विभिन्न वैवाहिक एवं अन्य आयोजनों में लोकगीतों की भांति गाया जाता है।

आज, ढोला-मारू के नाम पर राजस्थान में ढाबों, हॉटेल्स, रेसोर्ट्स, पिकिनिक-स्पॉट्स, बैंक्वेट-हॉल्स, मैरिज-गार्डन्स, दुकान, फैक्ट्री, कम्पनी, फर्म्स और व्यावसायिक प्रतिष्ठानों के नाम खूब मिलते हैं!

राजस्थान की अत्यंत प्राचीन सूक्ति भी है :
"मरवण थारै देस में / उपजे तीन रतन / इक ढोला इक मारवण/ तीजो कसूमळ रंग!"
कसूमळ रंग यानी कि वीरता का प्रतीक केसरिया!


इति ढोला-मारू कहानी : रितेश प्रज्ञांश



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यहाँ पढ़िए, नरवर कैसे पहुँचें -