गुरुवार, 14 नवंबर 2019

मारू थारे देस में, उपजै तीन रतन, इक ढोला, इक मारवण, तीजो कसूमळ रंग

और मारू नरवर की हो गयीं।




पूनम की चांदनी रात और रिमझिम बारिश के बीच किसी दरख़्त के नीचे से एक विरही पुकार हो, तो जानिए ढोला के लिए मारू का संदेश आ पहुंचा :
"सोरठियो दूहो भलो / भलि मरवण री बात / जोवण छाई धण भली / तारां छाई रात!"


ये कहानी यहाँ से आरंभ नहीं होती, बल्कि ये तो इसका इंटरमिशन है!


ढोला-मारू : यों तो ये नाम राजस्थान में देशी मदिरा का एक ब्रांड है। ये दुःखद है कि अक्सर ही, राजस्थानी युवान व दूसरे राज्यों के लोग भी इस शब्द को मदिरा से ही जोड़ के देखते हैं।
वस्तुतः ढोला-मारू है क्या? -- ये सम्भवतः बहुत कम लोगों को मालूम है!
राजस्थान की धरती शूरवीरों की धरती है, साहस शौर्य वीरता पराक्रम त्याग तपस्या बलिदान भक्ति और शक्ति की धरती है, प्रेम की धरती है।


जैसे राजस्थान के कण-कण में वीरता साहस शौर्य और पराक्रम की अनगिनत दास्तानें लिखी हुई हैं, वैसे ही यहां कण-कण में प्रेम की भी अनगिनत अमिट दास्तानें लिखी गयी हैं!
ढोला-मारू की प्रेम कहानी को, सर्वप्रथम ग्याहरवीं शताब्दी में लिखा गया। एक महाकाव्य जोकि दोहा शैली के छंद में आद्यन्त निबद्ध था। और महाकवि थे, महाकवि कलोल।
और तकरीबन छः सदी की सुषुप्ति के पश्चात्, सत्रहवीं शताब्दी में, कवि कुशलराय वाचक ने इस प्रेम कहानी में कुछ और दोहों को जोड़ा।


तत्कालीन पश्चिम राजस्थान के थार-मरुस्थल में जांगल-प्रदेश हुआ करता था, यानी कि वर्तमान बीकानेर रियासत। इस रियासत में एक ठिकाना है, पूंगलगढ़। उसके निकट का ठिकाना है, नरवर।
ग्याहरवीं शताब्दी के पूंगलगढ़ व नरवर ठिकानों में घनिष्ठ मित्रता थी। पूंगलगढ़ में पंवार वंशीय राजा पिंगळ का शासन था और नरवर में राजा नल का!
उसी दौर की बात है, पूंगलगढ़ में भीषण अकाल पड़ गया। और राजा पिंगळ, कुछ समय के लिए अपनी पत्नी व डेढ़ वर्षीय पुत्री के साथ, अपने मित्र राजा नल के यहां रहने नरवर जा पहुंचे।
राजा नल का एक तीन वर्षीय पुत्र था, राजकुमार साल्हकुमार, जो आगे चलकर महाकाव्य का नायक ढोला बना! और नायिका बनी राजा पिंगळ की डेढ़ वर्षीय पुत्री, राजकुमारी मारवणी।
कुछ कालखंड बीतने पर, पूंगलगढ़ में अकाल समाप्त हो गया। राजा पिंगळ अपनी ठिकाने लौट आये। दोनों ठिकानों में मित्रता और ज्यादा प्रगाढ़ हो इसलिए दोनों राजाओं ने अपनी संतानों का आपस मे विवाह रचा दिया।
किन्तु गौना शेष रहा!


समय अपनी रफ्तार से बीत रहा था। राजकुमार ढोला व राजकुमारी मारू, अपने अपने महलों में बड़े हो रहे रहे थे। और देखते ही देखते, दोनों युवान हो गए।
नरवर के राजा नल ने राजकुमार साल्हकुमार का विवाह, दूसरे किसी ठिकाने की राजुकमारी मालवणी से कर दिया। उन्होंने जाना कि मारू से ढोला का विवाह तो महज गुड्डे-गुड़िया का खेल था!
राजकुमार ढोला को भी बालपन में हुआ विवाह विस्मृत हो गया था। सो, वे अपनी ब्याहता पत्नी मालवणी के साथ प्रसन्नतापूर्वक रहने लगे।


उधर मारू को अपनी ही स्मृतियों का स्वप्न आया, अपने बचपन की शादी और पति ढोला! मारू बेचैन हो उठीं, विरह-वेदना में उदास गुमसुम रहने लगीं।
पुत्री का हाल देख, राजा पिंगळ ने राजा नल को गौने का संदेश भिजवाया। यहाँ नियति से त्रुटि ये हुई की गौने की चिट्ठी ढोला की ब्याहता पत्नी मालवणी के हाथों आई और उसने पूंगलगढ़ के संदेश-वाहक की ही हत्या करवा दी!
और साथ ही, ये व्यवस्था भी कर दी कि पूंगलगढ़ से नरवर की ओर आने वाले हर राज-सन्देशवाहक की हत्या मार्ग में ही कर दी जावै!


तमाम प्रयासों में असफल होने के पश्चात्, पूंगलगढ़ के राजा पिंगळ अपने सबसे चतुर राज-सन्देशवाहक को गौने का प्रस्ताव ले कर नरवर जाने हेतु चुना।
सन्देशवाहक के रवाना होने से पहले मारू उसे अपनी सुंदरता के विषयक कुछ दोहे लिख के देती है ताकि उन दोहों के माध्यम से ढोला को मारू की सुधियाँ आ सकें।
सन्देशवाहक ने एक भिक्षुक का वेश बनाकर नरवर में शरण ली!
चांदनी रात थी। ढोला अपनी पत्नी मालवणी के साथ अपने महल में विश्राम कर रहे थे। महल के बाहर, रिमझिम बारिश में एक पेड़ के नीचे बैठ के सन्देशवाहक ने मारू द्वारा रचित दोहों को गाना शुरू किया।


दोहों के भाव कुछ यों थे :
"मारू के चेहरे की चमक सूरज की धूप जैसी सुनहली है, कुछ ऐसी कि झीनी ओढ़नी में मारू की काया कंचन-सी चमकती है। मोरनी-सी चाल, मोती-से उज्ज्वल दांत, गुलाब-से ओष्ठ और हृदय की कोमलता, विनाम्रता और क्षमाशीलता! गंगा के पानी-सी गोरी का तन और मन श्रेष्ठ है। किन्तु ऐसी विलक्षण मारू का ढोला तो उसे जैसे भूल ही गया है!"


-- ज्यों ही ये शब्द कानों में पड़े, ढोला हड़बड़ा कर नींद से जाग बैठे, बेचैन हो गए। पूंगलगढ़ और मारू जैसे शब्द सुनकर, ढोला को अपने बचपन के विवाह की याद आ गई!
अब ढोला बार-बार नरवर से पूंगलगढ़ जाकर अपनी पत्नी मारू को लाने की योजना बनाने लगे और उनकी पत्नी मालवणी उन योजनाओं को बार-बार नष्ट करने लगी।
किन्तु जब जब जो जो होता है, तब तब वो वो होता है। उसे कोई नहीं रोक सकता!
अंततोगत्वा, एक मध्यरात्रि को ढोला ने अपने महल के सबसे तेज दौड़ने वाले ऊंट पर सवार हो, पूंगलगढ़ रावानगी डाल दी।


ढोला को आया देख, मारू उसके सीने से छुईमुई के पादप की भांति लिपट गईं, ज्यों पेड़ से लता लिपट जाती है!
किन्तु ये दुःखों का अंत न था। ज्यों ही ढोला ने मारू को लेकर वापसी नरवर की ओर रवानगी डाली, थार का लुटेरा उमर सूमरा मार्ग में आ बैठा। और ढोला के चलते कारवां को रुकवा लिया।
चूंकि उमर सूमरा की योजना धन लूटने की न थी बल्कि उसे मारू चाहिए थी। सो, उसने आक्रमण न कर स्वागत किया। ढोला को लगा कि नरवर का ही कोई सामंत है, थके हारे कारवां को देख सत्कार कर रहा है।
ऐसा विचार कर, ढोला अपने ऊँट से उतर उमर सूमरा के साथ उसके तंबू में जाने लगे। ठीक उसी समय, मारू को अनहोनी का भान हुआ और उसने ढोला को पुकार लगाई कि यहां खतरा है, यहाँ से निकलो।


किन्तु स्वागत में बजते नगाड़ों के कारण मारू की आवाज़ ढोला न सुन सके!
खतरे को निकट पा कर मारू ने अपना रणकौशल दिखाया। उन्होंने अपने ऊंट को एड लगाई और ढोला के पास से गुजरते हुए बांह पकड़ के ढोला को ऊंट पर खींच लिया।
अब पीछे उमर सूमरा अपने घोड़े पर और ढोला-मारू आगे आगे! मगर रेगिस्तान का जहाज तो ऊंट है। उमर सूमरा रेत से पराजित होकर लौट गया!
और मारू नरवर की हो गईं।


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हज़ार वर्षों के पश्चात् आज भी, रेगिस्तान की इस प्रेमकथा को विभिन्न वैवाहिक एवं अन्य आयोजनों में लोकगीतों की भांति गाया जाता है।

आज, ढोला-मारू के नाम पर राजस्थान में ढाबों, हॉटेल्स, रेसोर्ट्स, पिकिनिक-स्पॉट्स, बैंक्वेट-हॉल्स, मैरिज-गार्डन्स, दुकान, फैक्ट्री, कम्पनी, फर्म्स और व्यावसायिक प्रतिष्ठानों के नाम खूब मिलते हैं!

राजस्थान की अत्यंत प्राचीन सूक्ति भी है :
"मरवण थारै देस में / उपजे तीन रतन / इक ढोला इक मारवण/ तीजो कसूमळ रंग!"
कसूमळ रंग यानी कि वीरता का प्रतीक केसरिया!


इति ढोला-मारू कहानी : रितेश प्रज्ञांश



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यहाँ पढ़िए, नरवर कैसे पहुँचें -

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